भारत की सबसे बड़ी और अहम खुफिया एजेंसी ‘आर. ए. डब्लू’ यानी ‘रॉ’ का गठन 1968 में किया गया था. माना जाता है कि इसकी जरुरत तब पड़ी थी, जब हमारी घरेलू एजेंसियां भारत-पाकिस्तान युद्ध में दुश्मनों की जानकारी हासिल करने में विफल हो गईं थीं. भारत सरकार ने इस बात को गंभीरता लेते हुए इसका मूल्यांकन किया. इसी के साथ तय किया गया कि विश्व स्तर पर एक खुफिया एजेंसी बनाई जायेगी. इसके बाद ‘रॉ’ का गठन कर दिया गया.
‘रॉ’ के जासूसों को हर तरह की मुश्किलों का सामना करने के लिए तैयार किया गया. उन्हें आत्मरक्षा के वह सारे जरुरी गुर सिखाए गये, जो किसी भी मुश्किल परिस्थित से उन्हें निकाल सकते थे. माना जाता है कि इन्हें एक खास किस्म की ट्रेनिंग ‘कराव मागा’ से तैयार किया गया था. यह तकनीक इस्राइल से प्रेरित मानी जाती है, जिसका चलन आज के दौर में भी किया जाता है.
गठन होते हुए ‘रॉ’ हरकत में आ गयी और देखते ही देखते इसने विश्व भर में अपने पैर जमाने शुरु कर दिए. इसी कड़ी में भारत-पाकिस्तान के बीच लड़े गए 1971 के युद्ध में ‘रॉ’ ने अपनी जिम्मेदारी निभाई. इसके मिले इनपुटों की मदद से भारत जंग जीतने में कामयाब रहा. यह वही युद्ध था, जिसके परिणाम स्वरुप पाकिस्तान से अलग होकर बांग्लादेश के रुप में विश्व को नया देश मिला. इसे ‘रॉ’ की पहली बड़ी सफलता के रुप में देखा गया.
1984 में फिर से पाक के मंसूबों पर फेरा पानी
माना जाता है कि 1984 में पाकिस्तानी सेना की एक टुकड़ी ‘अबाबील’ नाम के एक मिशन पर निकली थी. वह भारत के जम्मू-कश्मीर में स्थित सियाचिन के शेल्टरों पर कब्ज़ा करना चाहते थे, पर रॉ ने भारतीय सेनाको पहले से ही इसकी जानकारी दे दी थी, जिस कारण पाकिस्तानी सैनिक को उलटे पांव लौटना पड़ा था.
1988 में कुछ तमिल उग्रवादियों ने मालदीव पर आक्रमण कर दिया था. रॉ को जब इस बात की जानकारी मिली तो वह एक खुफिया मिशन पर निकली, जिसको ‘ऑपरेशन कैक्टस’ के नाम से जाना जाता है. इस ऑपरेशन में ‘रॉ’ ने भारतीय सेना के साथ मिलकर थोड़े ही समय में नापाक उग्रवादियों को खदेड़ दिया था.
‘रॉ’ का काम बस दूसरे देशों से जानकारी लाना ही नहीं है, बल्कि देश की सुरक्षा से जुड़ी जानकारी को बचाए रखना भी होता है. भारत की परमाणु से संबधित जानकारी भी इन्हीं के चलते गुप्त बनी हुई है. हर देश जानना चाहता है कि आखिर भारत के पास कितनी परमाणु ताकत है, और यह इससे जुड़े और कौन-कौन से हथियार रखे हुए है, पर शुक्र है कि ‘रॉ’ के कारण यह जानकारी आम होने से बची हुई है.
‘रॉ’ के आधिकतर जासूस सेना और पुलिस से लिए जाते हैं. उन्हें ऐसे लोगों की तलाश रहती है, जिन्हें पहले से ऐसे कामों की आदत हो. ‘रॉ’ का जासूस बनने के लिए कोई प्रतियोगिता नहीं होती. बल्कि, ज्यादातर लोगों को यह खुद ढूंढ कर लाते हैं. वक़्त के साथ ‘रॉ’ ने थोड़ी ढ़ील भी देनी शुरू की है. इसी कड़ी में वह फौज के बहार से भी लोगों को अब ‘रॉ’ में शामिल करने लगे हैं. रविंद्र कौशिक इसका एक उदाहरण हैं…
रविंद्र कौशिक एक थिएटर कलाकार थे. लखनऊ में हुई एक प्रतियोगिता में रॉ के कुछ लोगों ने उन्हें देखा और उन्हें जासूस बनके पाकिस्तान जाने का प्रस्ताव दिया, जिसको रविंद्र ने मान लिया. दो साल तक उन्हें हर तरह की ट्रेनिंग दी गई और उन्हें पूरी तरह मुसलमान बना दिया गया, फिर उन्हें पाकिस्तान में भेजा गया, जहां वह एक सैनिक बनने में कामयाब रहे. वह धीरे-धीरे बड़े पद पर पहुँच भी गये और भारत को वहां से जानकारियां भेजना शुरू कर दी, पर वह ज्यादा सालों तक ऐसा नहीं कर सके, क्योंकि पाकिस्तान उनकी असलियत जान चुका था. उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और पाकिस्तान जेल में डाल दिया गया.
रॉ के जासूसों को इस तरह तैयार किया जाता है कि वह हर तरह का किरदार निभा सकें. वह भी बिना किसी की नजर में आए. अजीत डोभाल, जो इस समय भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हैं. वह भी ‘रॉ’ में काम कर चुके हैं. अपने जासूसी के दिनों में डोभाल ने 7 साल पाकिस्तान में एक आम नागरिक की तरह गुज़ारे थे. कहा जाता है कि रॉ के जासूस किसी भी रूप में आपके सामने हो सकते हैं और उनको पहचानना मुश्किल होता है.
शायद इसलिए ही ‘रॉ’ भारत की सबसे बड़ी खुफिया एजेंसी है, जिस तरह से यह देश की सुरक्षा के लिए लगातार अपनी सेवाएं देती आ रही है, वह काबिले तारीफ है.